Godaan by premchand in hindi/godan by premchand in hindi pdf
Godaan premchand dwara likhi gayi ek upanyas hai , jisk angreji me bhi anubaad the Gift of a Cow ke naam se kiya gaya hai ,
Godaan ko hindi ke sarvshresta upayaso me bhi shamil kiya gaya hai, yah upanyas pehli baar 1936 me launch hui thi.
Godaan me grameen khestra ka prastut kiya hai
aaj ke samajik dor me grameeno ki istithi
garib grameeno ka sosan.
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उपन्यास के कुछ भाग
गोदान
प्रेमचंद
भाग - १
भाग 1 होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी दे कर अपनी स्त्री धननया से कहा - गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौट ूँ। जरा मेरी लाठी दे दे। धननया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथ कर आई थी। बोली - अरे, कु छ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है? होरी ने अपने झुर्ररयों से भरे हुए माथे को नसकोड़ कर कहा - तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चचता है कक अबेर हो गई तो मानलक से भेंट न होगी। असनान-प जा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा। 'इसी से तो कहती हूँ, कु छ जलपान कर लो और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा! अभी तो परसों गए थे।' 'त जो बात नहीं समझती, उसमें टाूँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी नमलते-जुलते रहने का परसाद है कक अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता कक ककधर गए। गाूँव में इतने आदमी तो हैं, ककस पर बेदखली नहीं आई, ककस पर कु ड़की नहीं आई। जब द सरे के पाूँवों-तले अपनी गददन दबी हुई है, तो उन पाूँवों को सहलाने में ही कुसल है।' धननया इतनी व्यवहार-कु शल न थी। उसका नवचार था कक हमने जमींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएूँ। यद्यनप अपने नववानहत जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कक चाहे ककतनी ही कतर-ब्योंत करो, ककतना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाूँत से पकड़ो; मगर लगान का बेबाक होना मुनककल है। किर भी वह हार न मानती थी, और इस नवषय पर स्त्री-पुरुष में आए कदन संग्राम नछड़ा रहता था। उसकी छ: संतानों में अब के वल तीन चजदा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़ककयाूँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवा-दवाई होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मूँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाूँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गए थे, चेहरे पर झुर्ररयाूँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुंदर गेहुूँआूँ रंग सूँवला गया था, और आूँखों से भी कम स झने लगा था। पेट की चचता ही केकारण तो। कभी तो जीवन का सुख न नमला। इस नचरस्थायी जीणादवस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे कदया था। नजस गृहस्थी में पेट की रोटटयाूँ भी न नमलें, उसके नलए इतनी खुशामद क्यों? इस पटरनस्थनत से उसका मन बराबर नवद्रोह ककया करता था, और दो-चार घुड़ककयाूँ खा लेने पर ही उसे यथाथद का ज्ञान होता था। उसने परास्त हो कर होरी की लाठी, नमरजई, ज ते, पगड़ी और तमाख का बटुआ ला कर सामने पटक कदए।
होरी ने उसकी ओर आूँखें तरेर कर कहा - क्या ससुराल जाना है, जो पाूँचों पोसाक लाई है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, नजसे जा कर कदखाऊूँ । होरी के गहरे साूँवले, नपचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धननया ने लजाते हुए कहा - ऐसे ही बड़े सजीले जवान हो कक साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जाएूँगी। होरी ने िटी हुई नमरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा - तो क्या त समझती है, मैं ब ढा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मदद साठे पर पाठे होते हैं। 'जा कर सीसे में मुूँह देखो। तुम-जैसे मदद साठे पर पाठे नहीं होते। द ध-घी अंजन लगाने तक को तो नमलता नहीं, पाठे होंगे। तुम्हारी दसा देख-देख कर तो मैं और भी स खी जाती हूँ कक भगवान यह बुढापा कै से कटेगा? ककसके द्वार पर भीख माूँगेंगे?' होरी की वह क्षनणक मृदुता यथाथद की इस आूँच में झुलस गई। लकड़ी सूँभलता हुआ बोला - साठे तक पहुूँचने की नौबत न आने पाएगी धननया, इसके पहले ही चल देंगे। धननया ने नतरस्कार ककया - अच्छा रहने दो, मत असुभ मुूँह से ननकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने। होरी कं धों पर लाठी रख कर घर से ननकला, तो धननया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन ननराशा-भरे शब्दों ने धननया के चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कं पन-सा डाल कदया था। वह जैसे अपने नारीत्व के संप णद तप और व्रत से अपने पनत को अभय-दान दे रही थी। उसके अंत:करण से जैसे आशीवाददों का व्य ह-सा ननकल कर होरी को अपने अंदर नछपाए लेता था। नवपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, नजसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों नेयथाथद के ननकट होने पर भी, मानो झटका दे कर उसके हाथ से वह नतनके का सहारा छीन लेना चाहा। बनल्क यथाथद के ननकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शनि आ गई थी। काना कहने से काने को जो दु:ख होता है, वह क्या दो आूँखों वाले आदमी को हो सकता है?
होरी कदम बढाए चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हटरयाली देख कर उसने मन में कहा - भगवान कहीं गौं से बरखा कर दे और डाूँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देसी गाएूँ तो न द ध दें, न उनके बछवे ही ककसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्ह में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी ख ब सेवा करेगा। कु छ नहीं तो चार-पाूँच सेर द ध होगा? गोबर द ध के नलए तरस-तरस रह जाता है। इस उनमर में न खाया-नपया, तो किर कब खाएगा? साल-भर भी द ध पी ले, तो देखने लायक हो जाए। बछवे भी अच्छे बैल ननकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। किर गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दसदन हो जायूँ तो क्या कहना! न जाने कब यह साध प री होगी, कब वह सुभ कदन आएगा! हर एक गृहस्थ की भाूँनत होरी के मन में भी गऊ की लालसा नचरकाल से संनचत चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक के स द से चैन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की नवशाल आकांक्षाएूँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे समातीं ! जेठ का स यद आमों के झुरमुट से ननकल कर आकाश पर छाई हुई लानलमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ रहा था और हवा में गरमी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले ककसान उसे देख कर राम-राम करते और सम्मान-भाव से नचलम पीने का ननमंत्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाूँ था? उसके अंदर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पा कर उसके स खे मुख पर गवद की झलक पैदा कर रही थी। मानलकों से नमलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कक सब उसका आदर करते हैं, नहीं उसे कौन प छता- पाूँच बीघे के ककसान की नबसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कक तीन-तीन, चार-चार हल वाले महतो भी उसके सामने नसर झुकाते हैं। अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़ कर एक खलेटी में आ गया था, जहाूँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हटरयाली नजर आती थी। आस-पास के गाूँवों की गउएूँ यहाूँ चरने आया करती थीं। उस उमस में भी यहाूँ की हवा में कु छ ताजगी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साूँसें जोर से लीं। उसके जी में आया, कु छ देर यहीं बैठ जाए। कदन-भर तो ल -लपट में मरना है ही। कई ककसान इस गड्ढे का पट्टा नलखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थे; पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कक उन्होंने साि कह कदया, यह जमीन जानवरों की चराई के नलए छोड़ दी गई है औ
अगर आप यह गोदान पूरा पड़ना चाहते आप इस उपन्यास की पीडीऍफ़ फाइल डाउनलोड कर सकते हो
दोस्तों में कॉपीराइट इशू की वजह से आप को पीडीऍफ़ उपलब्ध नहीं करा पा रहा हूँ लेकिन आप को फ्री में पीडीऍफ़ डाउनलोड करके लिए एक वेबसाइट की लिंक दे रहा हूँ वह से आप गोदान डाउनलोड कर सकते है
वेबसाइट लिंक - https://en.wikipedia.org/wiki/Godaan
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